9 - समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे

लैंगिक मुद्दे
लैंगिक असमानता का आधार स्त्री और पुरुष की जैविक बनावट नहीं बल्कि इन दोनों के बारे में प्रचलित रूढ़ छवियाँ और तयशुदा सामाजिक भूमिकाएँ हैं।
लड़के और लड़कियों के पालन-पोषण के क्रम में यह मान्यता उनके मन में बैठा दी जाती है कि औरतों की मुख्य जिम्मेदारी गृहस्थी चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने की है। यह चीज अधिकतर परिवारों के श्रम के लैंगिक विभाजन से झलकती है। औरतें घर के अन्दर का सारा काम-काज, जैसे- खाना बनाना, सफाई करना, कपड़े धोना और बच्चों की देख-रेख करना आदि करती हैं जबकि मर्द घर के बाहर का काम करते हैं। ऐसा नहीं है कि मर्द ये सारे काम नहीं कर सकते। दरअसल वे सोचते हैं कि ऐसे कामों को करना औरतों की जिम्मेदारी है।
श्रम का लैंगिक विभाजन
यह काम के बँटवारे का वह तरीका है, जिसमें घर के अन्दर के सारे काम परिवार की औरतें करती हैं या अपनी देख-रेख में घरेलू नौकरों/नौकरानियों से कराती हैं। श्रम के इस तरह के विभाजन का नतीजा यह हुआ है कि औरत तो घर की चारदीवारी में सिमट कर रह गई है और बाहर का सार्वजनिक जीवन पुरुषों के कब्जे में आ गया है। मनुष्य जाति की आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है। पहले औरतों को सार्वजनिक जीवन के बहुत-से अधिकार हासिल नहीं थे। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में औरतों ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आन्दोलन किए। विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आन्दोलन हुए। इन आन्दोलनों में महिलाओं के राजनीतिक और वैधानिक दर्जे को ऊँचा उठाने और उनके लिए शिक्षा तथा रोजगार के अवसर बढ़ाने की माँग की गई। मूलगामी बदलाव की माँग करने वाले महिला आन्दोलनों ने औरतों के व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में भी बराबरी की माँग उठाई। इन आन्दोलनों को नारीवादी आन्दोलन कहा जाता है। लैंगिक विभाजन की राजनीतिक अभिव्यक्ति और इस सवाल पर राजनीतिक गोलबन्दी ने सार्वजनिक जीवन में औरत की भूमिका को बढ़ाने में मदद की। आज हम वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबन्धक, कॉलेज और विश्वविद्यालयी शिक्षक जैसे पेशों में बहुत-सी औरतों को पाते हैं जबकि पहले इन कामों को महिलाओं के लायक नहीं माना जाता था। दुनिया के कुछ हिस्सों, जैसे- स्वीडन, नार्वे और फिनलैण्ड जैसे स्कैंडिवियाई देशों में सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी का स्तर काफी ऊँचा है। हमारे देश में आजादी के बाद से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है पर वे अभी भी पुरुषों से काफी पीछे हैं। हमारा समाज अभी भी पितृ-प्रधान है। औरतों के साथ अभी भी कई तरह के भेदभाव होते हैं, उनका दमन होता है।
महिलाओं में साक्षरता की दर अब भी मात्र 65% है जबकि पुरुषों में 82% । इसी प्रकार स्कूल पास करने वाली लड़कियों की एक सीमित संख्या ही उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ा पाती है। जब हम स्कूली परीक्षाओं के परिणाम पर गौर करते हैं तो देखते हैं कि कई जगह लड़कियों ने बाजी मार ली है और कई जगहों पर उनका प्रदर्शन लड़कों से बेहतर नहीं तो कमतर भी नहीं है। लेकिन आगे की पढ़ाई के दरवाजे उनके लिए बन्द हो जाते हैं क्योंकि माँ बाप अपने संसाधनों को लड़के-लड़की दोनों पर बराबर खर्च करने की जगह लड़कों पर ज्यादा खर्च करना पसन्द करते हैं। समान मजदूरी से सम्बन्धित अधिनियम में कहा गया है कि समान काम के लिए समान मजदूरी दी जाएगी। किन्तु, काम के प्रत्येक क्षेत्र में यानी खेल-कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों से लेकर खेत-खलिहान तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है, भले ही दोनों ने समान काम किया हो। भारत के अनेक हिस्सों में माँ-बाप को सिर्फ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने के तरीके इसी मानसिकता से पनपते हैं।
पूर्वाग्रह और रूढ़िबद्धता के कारण लैंगिक
सामान्यत: पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता के कारण लैंगिक भेदभाव दिखाई पड़ता है।  जब किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग या वस्तु के बारे में कोई ऐसी धारणा बन जाती है, जो सच्चाई से कोसों दूर हो, उन्हें रूढ़िबद्ध धारणाएँ कहते हैं। उदाहरणस्वरूप भारत में अधिकतर घरों में लड़कियाँ घर के काम करती हैं। इसी के आधार पर कोई व्यक्ति सभी लड़कियों से यही अपेक्षा करे कि लड़कियाँ केवल घर के काम करने के लिए ही बनी हैं, तो इस प्रकार की धारणा को रूढ़िबद्ध धारणा कहा जाता है। यदि कोई शिक्षक विद्यालय में आए अतिथि की खान-पान सम्बन्धी सेवा के लिए विद्यालय की लड़कियों को ही नियुक्त करना चाहता है, तो यह उस शिक्षक की रूढ़िबद्ध धारणा को दर्शाता है। ( क पूर्वाग्रह का सम्बन्ध पक्षपात से है। इसमें पूर्व के विचारों के आधार पर किसी से भेदभाव किया जाता है। सामान्यत: हमारे समाज में लैंगिक भेदभाव का कारण पूर्वाग्रह भी है। उदाहरण के लिए लड़के, लड़कियों से अधिक बुद्धिमान होते हैं, यह लैंगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है। लैंगिक पूर्वाग्रह के कारण ही समाज में यह मान्यता प्रचलित है कि लड़के ही वृद्धावस्था में माँ-बाप का सहारा होते हैं। विद्यालय की गायन एवं नृत्य प्रतियोगिता के लिए विद्यार्थियों को तैयार करते समय लड़कियों को वरीयता देना भी लैंगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है। लड़कियों को खेलने से वंचित करना भी लैंगिक पूर्वाग्रह का उदाहरण है। इसके पीछे यह धारणा है कि लड़कियों का शरीर खेल-कूद के लिए उपयुक्त नहीं होता, जो पूर्णत: गलत है।
यह कहना कि लड़कियों को घरेलू काम-काज के ज्ञान पर अधिक जोर देना चाहिए, क्योंकि अन्तत: उन्हें गृहस्थी ही सम्भालनी है। इस प्रकार की धारणा रूढ़िबद्धता को प्रदर्शित करती है।
लैंगिक भेदभाव एवं विद्यालय
विद्यालय में भी लैंगिक भेदभाव दिखाई पड़ता है, जोकि शिक्षकों के पक्षपातपूर्ण रवैये को दर्शाता है। इस प्रकार का पक्षपातपूर्ण रवैया संविधान के मानवीय एवं नैतिक दृष्टिकोण से भी पूर्णत: गलत है। विद्यालय में लैंगिक भेदभाव न हो इसके लिए यह आवश्यक है कि शिक्षकों को लिंग-पक्षपातपूर्ण व्यवहारों का अधिसंज्ञान हो अर्थात् उन्हें लिंग-भेद से सम्बन्धित विभिन्न पूर्वाग्रहों एवं रूढ़िबद्धता का ज्ञान हो, तभी वे इस प्रकार के व्यवहार को हतोत्साहित कर सकते हैं। शिक्षकों को रूढ़िबद्ध धारणाओं से बचना चाहिए एवं लड़कों व लड़कियों से समान व्यवहार करना चाहिए। शिक्षकों को लैंगिक पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता से ऊपर उठकर सभी छात्र एवं छात्राओं को पढ़ाई, खेल-कूद, विद्यालय समारोह आदि में समान अवसर उपलब्ध कराना चाहिए। समाज से लैंगिक पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता को समाप्त करने के लिए शिक्षकों का यह दायित्व है कि वह उदाहरण देकर छात्र-छात्राओं को यह समझाएँ कि लड़कियाँ भी घर के बाहर का कार्य करती हैं, जैसे कि आजकल लड़कियाँ सेना, खेल-कूद, जैसे क्षेत्रों में भी अच्छे प्रदर्शन कर रही हैं। इसी प्रकार यदि घर के काम में लड़कों को भी हाथ बटाना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर लड़कों को घर के काम करने चाहिए। इस प्रकार के विचारों के प्रसार में शुरुआत में थोड़ी कठिनाई अवश्य हो सकती है, किन्तु इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
समाज से लैंगिक पूर्वाग्रह एवं रूढ़िबद्धता को समाप्त करने के लिए विद्यालय-परिसर में लगे बुलेटिन-बोर्डों में पुरुषों को घर का काम करते हुए एवं बच्चों की देखभाल करते हुए चित्र तथा स्त्रियों को घर के बाहर के काम जैसेमोटरसाइकिल एवं ट्रेन चलाते हुए तथा ऑफिस के कार्य सम्भालते हुए चित्र दर्शाना चाहिए।
कई बार यह देखने को मिलता है कि कोई लड़का नृत्य-संगीत अथवा फैशन में अधिक रुचि लेता है, किन्तु उसके शिक्षक एवं अभिभावक उसे ऐसे कैरियर से दूर रहकर अभियान्त्रिकी पढ़ने की सलाह देते हैं, क्योंकि उनका मानना होता है कि नृत्य-संगीत अथवा फैशन जैसे क्षेत्र लड़कियों के लिए उचित हैं। यदि रुचि एवं उत्साह को नजरअन्दाज कर किसी बालक को अन्य कैरियर अपनाने की सलाह दी जाती है तो इसका प्रतिकूल असर उसकी सफलता परुपड़ता है एवं उसके असफल होने की सम्भावना अधिक होती है।
कई बार यह भी देखने को मिलता है कि लड़कियों को जीवविज्ञान या गृहविज्ञान के क्षेत्र में कैरियर बनाने की सलाह दी जाती है, भले ही उसकी रुचि भौतिकशास्त्र एवं गणित में क्यों न हो। इस प्रकार का निर्देशन एवं परामर्श पूर्णत: गलत है। कल्पना चावला एवं सुनीता विलियम्स ने इस बात का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है कि गणित, भौतिकशास्त्र एवं अभियान्त्रिकी में लड़कियाँ भी बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं।
स्‍त्री शिक्षा एवं स्‍त्री सशक्‍तीकरण
(1) समाज से लैंगिक भेदभाव को दूर करने के लिए स्त्री शिक्षा एवं स्त्री सशक्तीकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
(2) समाज में लैंगिक भेदभाव का एक बड़ा कारण स्त्रियों का अपने अधिकारों से परिचित नहीं होना है। स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा देने के बाद ही लड़कियाँ एवं स्त्रियाँ अपने अधिकारों से परिचित होकर इनके प्रति सचेत रहेंगी।
(3) 'महिला समाख्या' (स्त्रियों की समानता के लिए शिक्षा) परियोजना प्रारम्भ की गई है, जिसका उद्देश्य है प्रत्येक सम्बन्धित गाँव में महिला संघ के माध्यम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए महिलाओं को तैयार करना।
(4) स्त्री-शिक्षा के बिना स्त्री-पुरुष समानता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता और कानून भी किसी स्त्री को स्वयं को शिक्षित करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है इसलिए समाज के सभी सदस्यों को स्त्रियों की शिक्षा के प्रति दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है।



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