बाल केन्द्रित शिक्षा
प्राचीनकाल
में शिक्षा का उद्देश्य बालकों के मस्तिष्क में मात्र कुछ जानकारियाँ भरना होता था, किन्तु आधुनिक शिक्षा शास्त्र में बालकों के सर्वागीण विकास पर
जोर दिया जाता है, जिसके लिए
बाल मनोविज्ञान की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है।
वर्तमान
समय में बालकों के सर्वागीण विकास के महत्व को समझते हुए शिक्षकों के लिए बाल
मनोविज्ञान की पर्याप्त जानकारी आवश्यक होती है। इस जानकारी के अभाव में शिक्षक न
तो शिक्षा को अधिक-से-अधिक आकर्षक और सुगम बना सकता है और न ही वह बालकों की
विभिन्न प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सकता है। इस प्रकार बालकों के मनोविज्ञान
को समझते हुए उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था करने की आधुनिक शिक्षा प्रणाली
बाल-केन्द्रित शिक्षा कहलाती है।
भारतीय
शिक्षाविद् गिजू भाई की बाल-केन्द्रित शिक्षा के क्षेत्र में विशेष एवं उल्लेखनीय
भूमिका रही है। बाल-केन्द्रित शिक्षा के बारे में समझाने एवं इसे क्रियान्वित रूप
देने के लिए उन्होंने इससे सम्बन्धित कई प्रकार की पुस्तकों की रचना की तथा कुछ
पत्रिकाओं का भी प्रकाशन किया। उनका साहित्य बाल-मनोविज्ञान, शिक्षा शास्त्र एवं किशोर-साहित्य से सम्बन्धित है। आज की शिक्षा पद्धति बाल-केन्द्रित है।
इसमें प्रत्येक बालक की ओर अलग से ध्यान दिया जाता है पिछड़े हुए और मन्दबुद्धि
तथा प्रतिभाशाली बालकों के लिए शिक्षा का विशेष पाठ्यक्रम देने का प्रयास किया
जाता है।
व्यावहारिक
मनोविज्ञान ने व्यक्तियों की परस्पर विभिन्नताओं पर प्रकाश डाला है, जिससे यह सम्भव हो सका है कि शिक्षक हर एक विद्यार्थी की
विशेषताओं पर ध्यान दें और उसके लिए प्रबन्ध करें।
आज के
शिक्षक को केवल शिक्षा एवं शिक्षा पद्धति के बारे में नहीं, बल्कि शिक्षार्थी के बारे में भी जानना होता है, क्योंकि आधुनिक शिक्षा विषय प्रधान या अध्यापक प्रधान न होकर
बाल-केन्द्रित है। इसमें इस बात का महत्व नहीं कि शिक्षक कितना ज्ञानी, आकर्षक और गुणयुक्त है, बल्कि इस
बात का महत्व है कि वह बालक के व्यक्तित्व का कहाँ तक विकास कर पाता है।
बाल-केन्द्रित शिक्षा की विशेषताएँ
किसी भी
क्षेत्र में सफलता के लिए शिक्षक को बालकों के मनोविज्ञान की जानकारी अवश्य होनी
चाहिए। इसके अभाव में वह बालकों की न तो विभिन्न प्रकार की समस्याओं को समझ सकता
है और न ही उनकी विशेषताओं को, जिसके
परिणामस्वरूप बालकों पर शिक्षक के विभिन्न प्रकार के व्यवहारों का प्रतिकूल प्रभाव
पड़ सकता है।
बालक के
सम्बन्ध में शिक्षक को उसके व्यवहार के मूल आधारों, आवश्यकताओं, मानसिक
स्तर, रुचियों, योग्यताओं, व्यक्तित्व
इत्यादि का विस्तुत ज्ञान होना चाहिए। व्यवहार के मूल आधारों का ज्ञान तो सबसे
अधिक आवश्यक है,
क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य ही
बालक के व्यवहार को परिमार्जित करना है। अत: शिक्षा बालक की मूल प्रवृत्तियों, प्रेरणाओं और संवेगों पर आधारित होनी चाहिए। व्यवहार के इन मूल आधारों को नई
दिशा में मोड़ा जा सकता है, इनका शोधन
किया जा सकता है, इनको बालक में से निकाला जा सकता है। इसलिए सफल शिक्षक इनके
शोधीकरण का प्रयास करता है। बालक जो कुछ सीखता है, उससे उसकी आवश्यकताओं का बड़ा निकट सम्बन्ध है। स्कूल में पिछड़े हुए
और समस्याग्रस्त बालकों में से अधिकतर ऐसे होते हैं, जिनकी आवश्यकताएँ स्कूल में पूरी नहीं होती। इसलिए वे सड़कों पर लगे
बिजली के बल्बों को फोड़ते हैं, स्कूल से
भाग जाते हैं,
आवारागदीं करते हैं और आस-पड़ोस
के लोगों को तंग करते तथा मोहल्ले के बच्चों को पीटते हैं। मनोविज्ञान के ज्ञान के
अभाव में शिक्षक मारपीट के द्वारा इन दोषों को दूर करने का प्रयास करता है, परन्तु बालकों को समझने वाला शिक्षक यह जानता है कि इन दोषों
का मूल उनकी शारीरिक, सामाजिक
अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में ही कहीं-न-कहीं है। बाल मनोविज्ञान शिक्षक को
बालकों के व्यक्तिगत भेदों से परिचित कराता है और यह बतलाता है कि उनमें रुचि, स्वभाव तथा बुद्धि आदि की दृष्टि से भिन्नता पाई जाती है। अत:
कुशल शिक्षक मन्दबुद्धि, सामान्य
बुद्धि तथा कुशाग्र बुद्धि बालकों में भेद करके उन्हें उनकी योग्यताओं के अनुसार
शिक्षा देता है। शिक्षा देने में शिक्षक को बालक और समाज की आवश्यकताओं में समन्वय
करना होता है। स्पष्ट है कि इसके लिए उसे बालक की पूर्ण मनोवैज्ञानिक जानकारी होनी
चाहिए।
शिक्षण विधि Teaching Method
शिक्षा
शास्त्र शिक्षक को यह बतलाता है कि बालकों को क्या पढ़ाया जाए? परन्तु असली समस्या यह कि कैसे पढ़ाया जाए? इस समस्या को सुलझाने में बाल मनोविज्ञान शिक्षक की सहायता करता है। बाल
मनोविज्ञान सीखने की प्रक्रिया, विधियों, महत्वपूर्ण कारकों, लाभदायक और
हानिकारक दशाओं,
रुकावटों, सीखने का वक्र तथा प्रशिक्षण संक्रमण आदि विभिन्न तत्वों से
परिचित कराता है। इनके ज्ञान से शिक्षक बालकों को सीखने में सहायता कर सकता है। शिक्षा, मनोविज्ञान शिक्षण की विधियों का भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
करता है और उनमें सुधार के उपाय बतलाता है। बाल-केन्द्रित शिक्षा में शिक्षण विधि
को प्रयोग में लाते समय बाल-मनोविज्ञान को ही आधार बनाया जाता है।
मूल्यांकन और परीक्षण Evaluation
and Test
शिक्षण से
ही शिक्षक की समस्या हल नहीं हो जाती। उसे बालकों के ज्ञान और विकास का मूल्यांकन
और परीक्षण करना होता है। मूल्यांकन से परीक्षार्थी की उन्नति का पता चलता है।
शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक और शिक्षार्थी बार-बार यह जानना चाहते
हैं कि उन्होंने कितनी प्रगति हासिल की है और यदि उन्हें सफलता अथवा असफलता मिली
है, तो क्यों और उसमें क्या परिवर्तन किए जा
सकते हैं। इन सभी प्रश्नों को सुलझाने में मूल्यांकन के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के
परीक्षणों और मापों की आवश्यकता पड़ती है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में मूल्यांकन
शब्द परीक्षा,
तनाव और दुश्चित से जुड़ा हुआ है।
मूल्यांकन के इस तनाव एवं दुश्चिता को दूर करने के लिए वर्तमान बाल-केन्द्रित
शिक्षा प्रणाली में सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन पर जोर दिया गया है, जो बालकों के इस प्रकार के तनाव एवं दुश्चिता को दूर करने में
सहायक साबित हो रहा है। सतत् और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) का अर्थ छात्रों के
विद्यालय आधारित मूल्यांकन की प्रणाली से है जिसमें छात्रों के विकास के सभी पक्ष
शामिल हैं। यह एक बच्चे की विकास प्रक्रिया है, जिसमें दोहरे उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। ये उद्देश्य एक ओर
मूल्यांकन में निरन्तरता और व्यापक रूप से सीखने के मूल्यांकन पर तथा दूसरी ओर
व्यवहार के परिणामों पर आधारित हैं। यहाँ निरन्तरता' का अर्थ इस पर बल देना है कि छात्रों की वृद्धि और विकास के अभिज्ञात
पक्षों का मूल्यांकन एक बार के कार्यक्रम के बजाय एक निरन्तर प्रक्रिया है, जिसे सम्पूर्ण अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया में निर्मित किया गया
है और यह शैक्षिक सत्रों की पूरी अवधि में फैली हुई है। इसका अर्थ है मूल्यांकन की
नियमितता, अधिगम अन्तरालों का निदान, सुधारात्मक उपायों का उपयोग, स्वयं मूल्यांकन के लिए अध्यापकों और छात्रों के साक्ष्य का फीडबैक
अर्थात् प्रतिपुष्टि। दूसरा पद व्यापक का अर्थ है शैक्षिक और सह शैक्षिक पक्षों को
शामिल करते हुए छात्रों की वृद्धि और विकास को परखने की योजना। चूँकि क्षमताएँ, मनोवृत्तियाँ और सोच अपने आप को लिखित शब्दों के अलावा अन्य
रूपों में प्रकट करती है, इसलिए यह
पद अनेक साधनों और तकनीकों के अनुप्रयोग को सन्दर्भित करता है। (परीक्षणकारी और
गैर परीक्षणकारी दोनों) और यह सीखने के क्षेत्रों में छात्रा के विकास के
मूल्यांकन पर लक्षित है जैसे- ज्ञान, समझ, व्याख्या अनुप्रयोग, विश्लेषण, मूल्यांकन एवं सृजनात्मकता।
पाठ्यक्रम
समाज और
व्यक्ति की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्कूल के पाठ्यक्रम का विकास, व्यक्तिगत विभिन्नताओं, प्रेरणाओं, मूल्यों एवं सीखने के सिद्धान्तों के मनोवैज्ञानिक ज्ञान के
आधार पर किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम बनाने में शिक्षक यह ध्यान रखता है कि
शिक्षार्थी की और समाज की क्या आवश्यकताएँ हैं और सीखने की कौन-सी क्रियाओं से ये
आवश्यकताएँ सर्वोत्तम रूप से पूर्ण हो सकती हैं? भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में तथा विभिन्न स्तरों पर कुछ सीखने की
क्रियाएँ वांछनीय हो सकती हैं और कुछ अवांछनीय, यह निश्चित करने में शिक्षक को विकास की विभिन्न स्थितियों का
मनोवैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिए। इस तरह बाल-केन्द्रित शिक्षा में इस बात पर जोर
दिया जाता है कि क्रियात्मक होने के लिए प्रत्येक पाठ्यक्रम एक समुचित
मनोवैज्ञानिक आधार पर स्थापित हो।
व्यवस्थापन एवं
अनुशासन
बाल-केन्द्रित
शिक्षा के अन्तर्गत कक्षा व विद्यालय में अनुशासन एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए
बाल मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। उदाहरण के लिए कभी-कभी कुछ शरारती बालकों
में अच्छे समायोजक के लक्षण दिखाई देते हैं, ऐसी
परिस्थिति में शिक्षकों को उन्हें दबाने के स्थान पर प्रोत्साहित करने के बारे में
सोचना पड़ता है।
बाल
मनोविज्ञान ही शिक्षक को बतलाता है कि एक ही व्यवहार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में
भिन्न-भिन्न प्रेरणाओं के कारण हो सकता है। शिक्षक को उनके असली प्रेरक कारणों का
पता लगाकर उनके अनुकूल व्यवहार करना होता है।
प्रयोग एवं
अनुसन्धान
बाल-केन्द्रित
शिक्षा में बालकों को प्रयोग एवं अनुसन्धान की ओर उन्मुख करने के लिए भी बाल मनोविज्ञान
का सहारा लिया जाता है। नई-नई परिस्थितियों में नई-नई समस्याओं को सुलझाने के लिए
शिक्षक को स्वयं प्रयोग करते रहना चाहिए और उससे निकले निष्कर्षों का उपयोग करना
चाहिए। मनोविज्ञान के क्षेत्र में होने
वाले नये-नये अनुसन्धानों से जो नये-नये तथ्य प्रकाश में आते हैं, उनकी जाँच करने के लिए भी शिक्षक को प्रयोग करने की आवश्यकता
है।
कक्षा में
समस्याओं का निदान और निराकरण
बाल-केन्द्रित
शिक्षा के अन्तर्गत कक्षा की विभिन्न प्रकार की समस्याओं को पहचानने एवं उनका
निराकरण करने के लिए भी बालमनोविज्ञान का ही सहारा लिया जाता है।
प्रगतिशील
शिक्षा
(1) प्रगतिशील
शिक्षा पारम्परिक शिक्षा की प्रतिक्रिया का परिणाम है।
(2) प्रगतिशील
शिक्षा की अवधारणा के विकास में संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक जॉन
डीवी का विशेष योगदान है।
(3) प्रगतिशील
शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है - शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का
विकास है। वैयक्तिक विभिन्नता के अनुरूप शिक्षण प्रक्रिया में भी अन्तर रखकर इस
उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है।
(4) प्रगतिशील
शिक्षा के अन्तर्गत प्रोजेक्ट विधि, समस्या
विधि एवं क्रिया-कार्यक्रम जैसी शिक्षण-पद्धतियों को अपनाया जाता है।
प्रगतिशील
शिक्षा के विकास में योगदान देने वाले मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त
मस्तिष्क
एवं बुद्धि
मस्तिष्क
एवं बुद्धि, मनुष्य की उन क्रियाओं के परिणाम हैं, जिन्हें वह जीवन की विभिन्न व्यावहारिक सामाजिक समस्याओं को
सुलझाने के लिए करता है। ज्यों-ज्यों वह जीवन की दैनिक क्रियाओं को करने में
मानसिक शक्तियों का प्रयोग करता जाता हैं, त्यों-त्यों
उसका विकास भी होता जाता है। क मस्तिष्क ही वह सबसे प्रमुख साधन है, जिसकी सहायता से मनुष्य अपनी समस्याओं का हल करता है। के एक
साधन के रूप में मस्तिष्क के तीन प्रमुख रूप हैं चिन्तन, अनुभूति एवं संकल्प
ज्ञान
ज्ञान कर्म
का ही परिणाम है। कर्म अनुभव से पूर्व आता है। अनुभव ज्ञान का स्रोत है। जिस
प्रकार बालक अनुभव से यह समझता है कि अग्नि हाथ जला देती है, उसी प्रकार
उसका सम्पूर्ण ज्ञान अनुभव पर आधारित होता है।
मौलिक
प्रवृत्तियाँ
सभी ज्ञान
व्यक्तियों की उन क्रियाओं के फलस्वरूप प्राप्त होता है, जो वे औपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने में करते हैं।
सुरक्षा, भोजन तथा वस्त्र के लिए मानव जो संघर्ष करता है। उसका परिणाम
होता है कुछ क्रियाओं का प्रारम्भ और ये क्रियाएँ ही व्यक्ति की उन प्रवृत्तियों, मौलिक भावनाओं तथा रुचियों को जन्म देती है।
चिन्तन
की प्रक्रिया
चिन्तन
केवल मनन करने से पूर्ण नहीं होता और न ही भावना-समूह से इसकी उत्पत्ति होती है।
चिन्तन का कुछ कारण होता है। किसी हेतु के आधार पर मनुष्य सोचना प्रारम्भ करता है।
यदि मनुष्य की क्रिया सरलतापूर्वक चलती रहती है, तो उसे सोचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती किन्तु जब उसकी प्रगति में
बाधा पड़ती है,
तो वह सोचने के लिए बाध्य हो जाता
है।
मनोविज्ञान
के उपरोक्त सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं के आधार पर प्रगतिशील शिक्षा की नींव रखी गई
है। जिसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि बालक को जो शिक्षा दी जाए, वह मानसिक क्रियाओं की विभिन्न दशाओं के अनुसार हो।
प्रगतिशील
शिक्षा का महत्व
जैसा कि
ऊपर कहा जा चुका है कि प्रगतिशील शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का
विकास होता है,
इसलिए इसके अन्तर्गत इसी बात पर
जोर दिया जाता है किन्तु बालक में विभिन्न शक्तियों का विकास किस प्रकार से होगा, इसके लिए कोई सामान्य सिद्धान्त निश्चित नहीं किया जा सकता।
इसका कारण यह है कि भिन्न-भिन्न रुचियों और योग्यताओं के बालकों में विकास
भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है। इसलिए अध्यापक को बालक की योग्यताओं पर दृष्टि
रखते हुए उसे निर्देशन देना चाहिए।
प्रगतिशील
शिक्षा यह बताती है कि शिक्षा बालक के लिए है, बालक शिक्षा के लिए नहीं। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य ऐसा वातावरण
तैयार करना होना चाहिए, जिसमें
प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का
उद्देश्य जनतन्त्रीय मूल्यों की स्थापना है। यह हमें बताता है कि बालक में
जनतन्त्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हम ऐसे समाज का
निर्माण करना चाहते हैं जिसमें व्यक्ति-व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतन्त्रता और सहयोग से काम करें। प्रत्येक मनुष्य
को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और
आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिए जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाए।
शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए। इस
तरह, प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य बालक के
व्यक्तित्व का विकास करना और शिक्षा द्वारा जनतन्त्र को स्थापित करना होता है।
प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर जोर दिया जाता है।
इसमें बालक के स्वयं करके सीखने की प्रक्रिया पर जोर दिया जाता है। इस शिक्षण पद्धति
में बालक के जीवन, क्रियाओं
के विषयों में एकता स्थापित की जाती है। यह बालक के जीवन की क्रियाओं के चारों ओर
सब विषय इस तरह बांध देता है कि क्रियाओं के द्वारा उनको ज्ञान प्राप्त हो सके।
यहाँ पर शिक्षा-पद्धति को बालक की रुचि पर आधारित करने की बात आती है। प्रगतिशील
शिक्षा के अन्तर्गत डीवी ने शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है
रुचि और प्रयास। अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी
कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना
चाहिए। इससे वे अपनी रुचियों के अनुसार कार्यक्रम बना सकेंगे। इनमें किसी प्रकार
के दबाव और भय की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि
तभी कार्यक्रम रुचि के अनुसार हो सकेंगे और तभी स्कूल की क्रिया आत्म-क्रिया बन
सकेगी। डीवी की शिक्षा-पद्धति सम्बन्धी इन विचारों के आधार पर ही आगे चलकर
प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ, जिसके
अनुसार बालक को ऐसे काम दिए जाने चाहिए, जिनसे
उसमें स्फूर्ति,
आत्मविश्वास, आत्म-निर्भरता और मौलिकता का विकास हो सके। प्रगतिशील
शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज
का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसे वातावरण का निर्माण करना पड़ता है, जिसमें पलकर बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके और वह
जनतन्त्र का योग्य नागरिक बन सके। डीवी ने शिक्षक को यहाँ तक महत्व दिया है कि उसे
समाज में ईश्वर का प्रतिनिधि ही कह दिया है। विद्यालय में स्वतन्त्रता और समानता
के मूल्य बनाए रखने के लिए शिक्षक को अपने को बालकों से बड़ा नहीं समझना चाहिए।
उसे आज्ञाओं और उपदेशों के द्वारा अपने विचारों और प्रवृत्तियों को बालकों पर
लादने का प्रयास नहीं करना चाहिए। को समझकर उनके अनुरूप कार्यों में लगना चाहिए।
इस प्रकार विद्यालय में शिक्षा बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखकर
दी जानी चाहिए। इससे विद्यालय के संचालन में कठिनाई बहुत कम हो जाती है। प्रगतिशील
शिक्षा के अन्तर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों को
कुंण्ठित करना अनुचित माना जाता है। वास्तव में, अनुशासन केवल बालक के निजी व्यक्तित्व पर ही निर्भर नहीं है, उसका सामाजिक परिस्थितियों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। सच्चा
अनुशासन सामाजिक अनुशासन है और यह बालक के
विद्यालय के सामूहिक कार्यों में भाग लेने से उत्पन्न होता है। विद्यालय
में ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाना चाहिए कि बालक परस्पर सहयोग से रहने का अभ्यास
करें। विद्यालय में एकसमान उद्देश्य लेकर सामाजिक, नैतिक, बौद्धिक और
शारीरिक कार्यों में एकसाथ भाग लेने से बालकों में अनुशासन उत्पन्न होता है और
उन्हें नियमित रूप से काम करने की आदत पड़ती है। विद्यालयों में कार्यक्रमों का
बालक के चरित्र-निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। बालक को प्रत्यक्ष रूप से उपदेश
न देकर उसे सामाजिक परिवेश दिया जाना चाहिए और उसके सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए
जाने चाहिए कि उसमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो और वह सही अर्थों में सामाजिक प्राणी
बने। यह ठीक है कि विद्यालय में शान्तिपूर्ण वातावरण होने से काम अधिक अच्छा होता है किन्तु शान्ति साधन है, साध्य नहीं। शिक्षक को तो, अपनी ओर से बालकों को उनकी
प्रवृत्तियों के अनुसार नाना प्रकार के कामों में लगाए रखना चाहिए और यदि इस
प्रक्रिया में कभी-कभी कुछ अशान्ति भी उत्पन्न हो, तो उसे दूर करने के लिए बालक की क्रियाओं पर रोक-टोक करना उचित नहीं
है। आत्मानुशासन उत्पन्न करने में उत्तरदायित्व की भावना का विशेष महत्व है। उसे
उत्पन्न करने के लिए विद्यालय के अधिकतर काम स्वयं विद्यार्थियों को सौंप दिए जाने
चाहिए। इनमें भाग लेने से उनमें अनुशासन की भावना उत्पन्न होगी। प्रगतिशील शिक्षा
के सिद्धान्तों के अनुरूप ही आजकल शिक्षा की अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने पर जोर
दिया जाता है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास है और प्रत्येक व्यक्ति को
उसके व्यक्तित्व का विकास करने के लिए शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाना
चाहिए। आधुनिक शिक्षा में वैज्ञानिक और सामाजिक प्रवृत्ति प्रगतिशील शिक्षा का
योगदान है। इसके अनुसार शिक्षा एक सामाजिक आवश्यकता है। इसका लक्ष्य व्यक्ति और
समाज दोनों का विकास है। इससे व्यक्ति का शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक और
नैतिक विकास होता है।
प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण
सार्वभौमीकरण
का अर्थ होता है सब के लिए उपलब्ध कराना। प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के
अन्तर्गत देश के सभी बच्चों के लिए पहली से आठवीं कक्षा तक नि:शुल्क और अनिवार्य
शिक्षा का प्रावधान करने का उद्देश्य सुनिश्चित किया गया। इसमें इस बात पर जोर
दिया गया कि इस अनिवार्य शिक्षा के लिए स्कूल बच्चों के घर के समीप हो तथा चौदह
वर्ष तक बच्चे स्कूल न छोड़ें। ओपरेशन ब्लैक बोर्ड, न्यूनतम शिक्षा स्तर, मध्याह्न
भोजन स्कीम, पोषाहार सहायता कार्यक्रम, जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम, सर्वशिक्षा अभियान, कस्तूरबा
गाँधी बालिका विद्यालय, प्राथमिक
शिक्षा कोष इत्यादि प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण से सम्बन्धित कुछ प्रमुख
कार्यक्रम हैं।
Very nice
ReplyDeletebal kendrit sikchha ke gun dos bataben
ReplyDeleteVery good information
ReplyDeleteBaal kendrit sichha ka sidhan ko diffined kre sir
ReplyDeleteBahut achha sir aap ko koti koti naman karta hun i am sajan kumar
ReplyDeleteV v i laga
ReplyDeleteबाल केन्द्रित शिक्षा एवं प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा
ReplyDeleteविषय केंद्रित पाठयक्रम क्या है विशेषताएँ सीमाएँ
ReplyDeleteबाल केंद्रित पाठयक्रम क्या है विशेषताएँ सीमाएँ
क्रिया केंद्रित पाठयक्रम क्या है विशेषताएँ सीमाएँ